Tuesday, December 20, 2011

उल्लू की आँखें (लिथ्वानिया की लोक कथा)

बहुत समय की बात है जब जानवरों और पक्षिओं के पास आँखें नहीं थीं . तब एक दिन इश्वर ने उन सबको आँखें बांटने के लिए बुलाया.
- जो पहले आएगा सुन्दर आँखें पायेगा - उन्होंने कहा
सभी पशु पक्षी जल्दी जल्दी इश्वर के पास चले गए , सिर्फ उल्लू ही पीछे रह गया. वह लडखडाता हुआ इश्वर के पास पहुंचा. लेकिन जब तक वह वहां पंहुचा अँधेरा हो चूका था. इश्वर ने उसके लिए दो बड़ी बड़ी आँखें धुंदी जिससे की वह रात को भी देख सके. इश्वर ने इसलिए ऐसा किया क्योंकि वे उल्लू को रात को वहां ठहराना नहीं चाहते थे.
उल्लू ने वो आँखें ली और उसी समय रात को ही वहां से वापिस उड़ चला.
तभी से उल्लू रात में भी देख पता है.

हंगरी भाषा से हिंदी में अनुवादित

Friday, March 26, 2010

बोर्डिंग स्कूल

बोर्डिंग स्कूल – कोस्तोलानी दैज़ू
नानी जिन्हें दूर का बिल्कुल दिखाई नहीं देता था, सुबह हमारे यहाँ आई और मेरी माँ से बोली:
- इस बच्चे को भी बोर्डिंग स्कूल भेज देना चाहिए।
वह बच्चा जिसके बारे में बात कर रही थी, मैं था। मैं नागफ़नी की झाड़ी के नीचे एक केन की कुर्सी पर बैठा मक्खन ब्रेड खा रहा था। मैं नहीं जानता था कि मैंने ठीक से सुना वह जो कह रही थी। गुस्से से मेरी साँस रुक गयी। मुझे कभी नहीं लगता था कि एक व्यक्ति के बारे में ऐसे भी बात की जा सकती है, कम से कम मेरे बारे में तो नही। पूछ तक नहीं रहे हैं, बस कहीं किसी अंजान जगह भेज रहे हैं। मैने नफ़रत से नानी की ओर देखा। उनकी आँखें एक इंच मोटे चश्मे के नीचे और भी हरी लग रही थीं और मैं जानता था कि वह भी मुझसे नफ़रत करती हैं। तब मैंने ध्यान दिया कि उनके चेहरे में झुर्रियाँ ही रह गयी हैं और कुछ ही समय बाद परलोक सिधार जाएँगी।

मायूसी के माहौल में मैं केन की कुर्सी से उठा, कुछ बहुत ही बुरा अब तक अंजान सा कुछ होने का संदेह करता हुआ। लेकिन काम करना शुरु किया और कुछ बहुत ज़रूरी काम पूरे किये, जिन्हें वाकई में और नहीं टाला जा सकता था। शीशा लाके मचान के हवा आने के छिद्रों पर रोशनी डालने लगा, उन छिद्रों में जिनमें कपड़े के रूगड़ ठूँसे हुए थे, चैनल की छ्ड़ों और कूड़े के ढेर पर भी रोशनी डाली। बाग में बकाइन के पेड़ की एक आद पत्ती चबाई। यहाँ से डायनिंग हाल में यह देखने गया कि वह गुबरैला जिसे कल मैने गिलास के नीचे रखा था, ज़िन्दा है या नहीं। मचान में टिन के टब में खड़ा रहा, और लगभग एक घंटे तक बिना कुछ करे, बिना हिले डुले वहाँ रुका रहा। मैं ऐसी कल्पना कर रहा था कि मैं नाव में हूँ।

दोपहर में यहीं टब में मुझे ढूँढ निकालते थे। अगर मुझे ऐसे अकेले खेलते हुए पकड़ लेते तो मैं हमेशा ही शर्म से लाल हो जाता था। मैं सिर्फ़ यह जानता था कि खेलना कोई शर्म की बात नहीं है। लेकिन बड़े फिर भी इस पर उपहास करते थे, कई बार मैंने ऐसा होने की कल्पना की, यह होते देखा नहीं था। इसलिये इसके बाद किसी अपराध की तरह मैं इस कल्पना को छुपाता रहता था। शर्मिंदा सा मैं टेबल पर बैठा था। मचान की घटना ने मेरी माँ को इसपर उकसा दिया था कि कुछ करना पड़ेगा। खाने का अंत होते होते माँ ने मुझसे इस बात का खुलासा भी कर दिया कि मैं कल सवेरे ही बोर्डिंग स्कूल जाउँगा।

मेरे मुँह में स्पंज बिस्कुट कड़वा लगने लगा। मैने प्लेट पर थूक दिया , और नहीं खाया जा रहा था । सिर को छाती की ओर झुका लिया। व्यर्थ ही कहता कि नहीं जाउँगा, इसलिये आँगन की ओर बाहर भाग गया। यहाँ घातक डर ने मेरे दिल को झकझोर के रख दिया। इधर उधर भटकता रहा उस छिपी उम्मीद के साथ, वही जो एक मौत की सज़ा पाये को फाँसी से पहले होती है, कि शायद फिर भी वह न हो, जो कि हर हालत में होगा, और कैसे भी बोर्डिंग स्कूल के बारे में भूल जाएँ। बाद में बादल घिर आए। एक परेशान सी नीरसता ने पत्तियों को ढक लिया। मैं छप्पर के एक कोने में बैठा था। एक अराजकतावादी की तरह भयावह और भ्र्ष्ट रहा हूँगा। इस बात पर विचार कर रहा था कि मैने अपनी छोटी सी ज़िन्दगी में क्या बुरा काम किया था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मुझे घर से दूर क्यों ले जा रहे हैं। सोने से पहले बड़े आइने में मैने अपना दुबला चहरा देखा जो मुझे इतना तरस खाने लायक लग रहा था कि मैं रो पड़ा।

सवेरे आम दिनों के मुकाबले मुझे जल्दी तैयार कर दिया। नानी मेरे लिये बाज़ार से आई , एक काला थैला लिए जिसमें सब्जियाँ और मछली थीं। यह कि एक बोर्डिंग स्कूल क्या होता है, इसके बारे में अबतक मैने शायद ही सोचा था। सिर्फ एक बार दिखाया था लेकिन तब मैं मुँह मोड़कर घर तक भागा गया था और यह चिंता जब जब बोर्डिंग स्कूल की धमकी देते , तब तब पुनर्जीवित हो जाती। सच बताउँ तो मैं कभी यकीन नहीं करता था कि एक दिन मैं भी वहीं पहुँच जाऊँगा। दो घुमावदार गलियों को पार करके जाना पड़ा। जल्दी ही वहाँ पहुँच गये। मैं सोचता था कि बहुत दूर होगा। नानी ने एक जर्जर दरवाज़ा खोला, मुझे अंदर धकेला और वापिस कुंडी लगा दी।

अंदर बहुत बड़े आँगन के एक छोर पर, कीकड़ के पेड़ों के बीच एक मंजिला घर था, जिसमें इतनी खिड़कियाँ थी, जितनी मैने अपनी ज़िन्दगी में नहीं देखी थी। उसके सामने एक रेत का खेल का मैदान था, जिसमें एक दूसरे से शायद ही अलग दिखने वाले, एक जैसे, ट्रैक सूट पहने बच्चे शोर मचा रहे थे, मेरे जैसे ही थे वे सब छोटे और कमज़ोर। मैने दो कदम आगे बढाए और फिर रुक गया एक दूसरे की ओर देखते पैरों के साथ, टेढे मेढे पैरों के साथ। किसी ने ध्यान नहीं दिया। आखिरकार एक महिला आई जिसके बारे में मैं जान गया था कि वह बोर्डिंग स्कूल की आया है, उसने हाथ मिलाए और अंदर ले जाने लगी।

काँपते हुए मैं दूर हटा। लेकिन फिर भी बाद में बड़े ही संदेह के साथ उसके साथ गया। मुझे समझ नहीं आया कि वह मुझे कहाँ से जानती थी। क्योंकि मेरे साथ ऐसे पेश आ रही थी, मानो जानती हो। इधर उधर की बातें पूछने लगी, मेरे चेहरे पर थपथपाया और तू करके संबोधित करने लगी। मैं सोचने लगा कि यह मेरी कौन हो सकती है और किसकी ओर से बात कर रही है। फिर मुझे अहसास हुआ कि हमारा एक दूसरे से कोई लेना देना नहीं है, बस मेरे साथ घुल मिल रही है जैसे बाकी बच्चों के साथ करती होगी। बस मैं यह नहीं जानता था कि वह चाहती क्या है।

एक मंजिले घर में ले गयी, जिसे देखने भर से ही मुझ पर इतना भयंकर असर हुआ कि मैं पीला पड़ गया। बहुत बड़ा, कम ऊँचाई वाला, सफ़ेद रंग में पुता हॉल था जिसमें वह सारे बच्चे समा सकते थे, जो अभी बाहर थे। दीवारें नंगी, मचान, चौखट बेरंगे, साफ़। फर्नीचर में जो था वह सब बस कुछ छोटी कुर्सियाँ, एक आद बैंच और एक ऐक्स पैरों वाली टॆबल। हर तरफ़ लंबे खूँटे थे जिन पर बच्चे अपने हैट, बस्ते टाँगते थे। यह हॉल वैसे किसी कमरे जैसा तो नहीं दिखता था, जैसे मैने अबतक देखे थे। कहीं भी न कोई तस्वीर , न कोई आईना न सोफ़ा था। हर तरफ़ कड़ा अनुशासन था। इसमें था कुछ जो समझ नहीं आ रहा था। जैसे ही मैं अंदर घुसा मेरी नाक ने पेंट और सफ़ेदी की निराशाजनक गंध को महसूस किया। मैं असमंजस में पड़ गया कि यहाँ रहा भी जा सकता है क्या? और बाहर जाने के लिये वापिस मुड़ा।

तिसफ़ियू (बच्चे) – आया ने लाड़ जताते हुए कहा, और ज़मीन पर पंथी मार कर बैठ गयी, ¬- इधर आओ, तिसफ़ियू।

मैं चौखट पर रुक गया। आया रक्तहीनता से पीड़ित, बीस वर्षीय लड़की थी। फेफड़े संबंधी बीमारी के लक्षणों के साथ, चहरा पतला, नाक जिसपर गुलाबी चावल के दाने से थे, जहाँ से दानों को दबा निकाल दिया गया था, वहाँ छिद्रदार थी। मैं उससे घृणा करता था क्योंकि उसने मुझे तिसफ़ियू कहा था, जो कि मैं जानता था कि किशफ़ियू (बच्चे) के लिये कहते हैं। मैं तरस खाकर उसके करीब गया। हर प्रकार की उबाऊ बातें कर रही थी, तेज़ी से धीमी आवाज़ में, बत्तख के पैरों वाला घूमते हुए परियों के महल के बारे में, जिसमें मैं कभी विश्वास नहीं करता था। पोस्ते के दाने वाले केक के बारे में जिससे मैं नफ़रत करता था, कहानियों में पाए जाने वाले राजाओं के बारे में, वह जो केवल इस काम के लिये होते हैं कि बच्चों को बेवकूफ़ बना उन्हें सुलाया जा सके, जब बच्चे सोना न चाहें। उस पर साफ़ दिखता था कि मेरे जैसे छोटे बच्चे से अभी तक उसका पाला नहीं पड़ा था। आह भरती हुई वायोलिअन की ओर बढ़ी। एक धुन बजाई जो साफ़ तौर पर बोर्डिंग स्कूल के लिये बनी थी और जिसका इस्तेमाल कहना न मानने वाले शरारती बच्चों को गुदगुदाकर उनका मूड ठीक करने के लिये किया जाता था। मैंने अपने कान बंद कर लिये। इसपर उत्साहहीन सी होकर मेरे सामने खिलौने रख दिये। बस फ़ैक्टरी में बनी चाज़ें थीं, मंहगी और बेकार, चिपकी चीज़ें, रंगीन कागज़ से ढके डिब्बे, रिंग जिन्हें छड़ी से फैंकते रहना होता था।
- नहीं चाहिए मैंने कहा और एक एक करके वापस देने लगा।
- यह भी नहीं चाहिए?
एक गेंद दिखाने लगी। एक बच्चे के सिर जितनी बड़ी थी। शक करते हुए मैने हाथ में ली। मेरे खिलौने कुछ और ही होते हैं। मैंने बायीं मुठ्ठी में एक कंकड़ भींच रखा था जो परसो ट्रेन के वहाँ पटरियों के पास से उठाया था। यहाँ मेरे खिलाफ़ शायद कोई साज़िश रच रहे हैं; मैंने सोचा, ज़रूर मुझसे मेरा सामान लूट लेना चाहते हैं। उदास हो मैं गेंद को घूरता रहा। बड़ी गहराई से, बड़े ध्यान से ,जैसे कोई वैज्ञानिक ग्लोब को देखता है। अबोध और अंजान थी। यह गेंद एक अंजान गोलाकार आकृति थी। यह कंकड़ इसके बदले फिर भी नहीं दूंगा। मैने एक शब्द भी न कहा। इस अभागी लड़की से क्यों बात करूँ, जो कि यह समझती है कि संगीत की धुनों से मुझे यहाँ रोका जा सकता है? क्योंकि मुझे यह भी पता है कि फिसहारमोनियम क्या होता है और ऐंटीपीरीन क्या होती है। इसके अलावा अगर बीमार होता हूँ तो स्वयं ही अपना बुखार नापता हूँ। बेचारी के साथ बात करना व्यर्थ होगा। मैने गेंद आराम से ज़मीन पर रख दी।
- यह भी नहीं चाहिए। - तो क्या चाहते हो ? - कुछ नहीं।
- तो फिर रेत की ओर चले जाओ। - नहीं। - बाकियों के पास भागकर जाओ। - नहीं
- जाओ देखो कैसे खेल रहे हैं।
खिड़की की ओर ले गयी, जहाँ से खेलते हुए बच्चों को देखा जा सकता था। मैने आश्चर्य किया कि दुनिया में इतने सारे बच्चे हैं और सब के सब यहाँ आकर इकट्ठे हो गए हैं, इस अमैत्रीपूर्ण, उदास, बड़ी जगह पर, जबकि सबके माँ- बाप हैं, बाग बगीचे हैं, और सब वहाँ बेहतर मनोरंजित हो सकते हैं। बच्चों का मूड अच्छा था। उन्हें ज़रा सी भी परवाह नहीं थी, कि वे लोग घर पर नहीं हैं, कम से कम ऐसा जता रहे थे, कि आवाज़ तक नहीं उठाएंगे इस अपमान के खिलाफ़ कि उन्हें रुकना पड़ रहा है और यह दर्शा रहे थे कि अपनी मर्ज़ी से यहाँ रुक रहे हों। शायद नये खिलौने उन्हें पसंद भी आ गए हों। मैं उन्हें नहीं समझ पाया। इससे मुझे इतना कष्ट हुआ कि वहाँ खिड़की के आगे मैं लग भग धाराशाई हो गया।
- घर ! – मैं रो पड़ा, एक बार को, अचानक
- अब नहीं हो सकता- आया ने समझाया
- घर ! – मैने और ज़ोर से कहा।
- मैं तम्हें फटकार लगाती हूँ- उसने कहा और सीधी तर्जनी अंगुली को अकड़कर हवा में उठाया।
- घर , घर! – और मैने उसके हाथ से अपनी टोपी छीन ली, जो उसने बाकी बच्चों की टोपियों के साथ टाँगने के लिये पहले ही ले मुझसे ले ली थी।

हाथ में टोपी लिये मैं नंगे सिर रेतीले आँगन की ओर दौड़ा जहाँ बच्चॆ पंक्ति बनाए खड़े थे। यहाँ से भागना चाहता था लेकिन छोटा दरवाज़ा बंद था और हर तरफ़ विशाल , पीली विभाजन की दीवारों ने घेर रखा था जो कि आसमान को भी घेरे हुए थी। हाँफता हुआ मैं रुक गया। यहाँ से बच के भागा नहीं जा सकता। बच्चों के बीच आकर रुका मैं, लेकिन उन्होंने मुझपर ध्यान तक भी नहीं दिया। नरक जैसी गर्मी, ग्रीष्म ऋतु की दोपहर ने मेरी गर्दन ही भून दी। चक्कर खाकर मैं ज़मीन पर गिर पड़ा। बेबस हो गुस्से में रेत पर मुक्के मारने लगा। मुकका मारता रहा, मारता रहा , अपने पाँच साल के छोटॆ मुक्के से धरती पर, जो हमें रोके हुए है, गुस्से से पैर पटकने लगा कि क्या हम बच्चे बस इसी लायक हैं, और इसलिये कि मैं फिर इससे पहले जैसा था, वैसा फिर कभी नहीं हो पाउँगा। क्योंकि अब मैने सबकुछ देख लिया था। मेरी आँखों के नीचे अंधेरी परछाई थी। एक मिनट के अंदर इस ढेर सारी खिड़कियों और दीवारों वाले बोर्डिंग स्कूल में मैं बुढा गया था। घुटता हुआ, करहाता हुआ मैं धिक्कारने लगा।
- भगवान सज़ा दे- बच्चों की तरफ़ देखते हुए मैं चिल्लाया।
- किसे? क्या?- बच्चों ने मज़ाक उड़ाते हुए पूछा
- बोर्डिंग स्कूल को। मैंने गले से ज़ोर लगाते हुए चिल्लाकर कहा। – भगवान बोर्डिंग स्कूल को सज़ा दे।
- बोर्डिंग स्कूल को?- और अटपटे ढंग से मुझे देखने लगे।
आया उनके बीच जाकर शांत रहने और नियंत्रित रहकर ध्यान देने के लिए इशारा करने लगी और फ़िर मेरी ओर इशारा करने लगी, मैं जो ज़मीन पर लोट रहा था, मैं जो एक नास्तिक क्रांतिकारी था, जो बच्चों को कहना न मानने के लिये उकसाना चाहता था और खुद को शैतानी के लिये सज़ा दिलाने के लिये।
- बच्चों- अपना आँसूओं से चमकता चहरा उठाते हुए मैने कहा, घुटेनों पर खड़े होते हुए, जैसे सज़ा पाए हुए लोग होते हैं, आँखों पर पट्टी बाँधे जाने से पहले।
- बच्चों- और तब मैने ध्यान से देखा कि ये सब मेरे ही भाई- बंधु हैं जिनके साथ जुड़ना होगा, कि अब और बोर्डिंग स्कूल न जाँए, और हम अपनी पुरानी, खुश, साफ़ जिंदगी को न भूलें।- बच्चों- मैने धीरे से विनती की... बच्चों... भगवान तुम्हारी हिफ़ाज़त करें... बच्चों
मैं और आगे नहीं कह पाया क्योंकि मेरे शब्द शोर में खो गये थे। सीटी बजाकर, थप थपाकर, तिरही बजाकर उत्तेजित आदिवासियों जैसा शोर कर रहे थे। मैं फ़िर ज़मीन पर गिर पड़ा। मेरे आँसू कीचड़ में तब्दील हो गये थे और मेरा बड़ा चहरा, और मेरे सुनहरे बाल उससे सन गये थे। मेरे दाँतों में रेत किसकिसा रही थी। मेरे साथ किसी ने भी नहीं बोला कि भगवान बोर्डिंग स्कूल को सज़ा दें।

Monday, March 15, 2010

नारंगी बादल

नारंगी बादल
- कोस्तोलानी दैज़ू

सड़क पर चला जा रहा हूँ और एक नारंगी बादल पर मेरा ध्यान जाता है जो कि सर्दी के नीले , क्रिस्टल साफ आकाश में अकेला ही तैर रहा है। दोपहर के तीन बजे हैं । खुशी मुझे एक मदहोश और कोमा की स्थिति में जकड़ लेती है कि मुझे रुकना ही पड़ता है, एक दीवार का सहारा लेता हूँ कि कहीं चक्कर खाके गिर न पड़ू ।
~ ये क्या है? ! मैं चीख़ पड़ता हूँ। इस नारंगी बादल से सुंदर तो कभी मैंने कुछ देखा ही न था। खुशी भरा उत्साह मुझपर अचानक , चतुराई से प्रहार करता है, जैसे कि कोई गैस का प्रहार । मैं ये तक नहीं जानता कि कहाँ से । सिर्फ इस बात का अहसास होता है कि जीना बहुत सुखद है खासकर इतने साफ सर्दी के दिनों में जब लाल कोहरे के छटने की प्रतीक्षा करनी पड़ती है, जब सबपर एक रहस्य सा छाया रहता है, और काले आकाश से धीरे धीरे बर्फ़ गिरने लगती है , दूर कहीं बत्तियाँ जल रही हैं, स्लेज की घंटी बज रही है । वाह क्या उम्मीद और आकर्षण हर ओर से मेरी ओर बहा चला आ रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि जो वास्तव में सुन्दर है वह मेरे आगे है न कि पीछे। धड़कते दिल के साथ, उत्साहित हो, पूरी उम्मीद के साथ मैं नारंगी बादल की समीक्षा करता हूँ, जो रोशनी के गुछ्छे के साथ हवा में तैरता चला जा रहा है और इस बात पर विचार करता हूँ कि कहाँ देखा मैंने , किस परिदृश्य में, किस सपने में या फिर किस सजे मंच पर, रंगीली बत्तियों के साथ चतुराई और असंभतपूर्ण ढंग से चमचमाता हुआ।
अब मुझे सब पता चल गया है। इस नारंगी बादल से मैं एक बार पहले मिल चुका हूँ, बहुत पुरानी बात है, कई दशकों पहले, जब मैं तीन बरस का रहा हूँगा या फिर ज़्यादा से ज़्यादा चार का, दोपहर भोज के बाद मुझे सुनहरे बटन वाला कोट पहना कर, सर पर फर की टोपी डाल कर, मेरे गले में पीली धारी वाला काला मखमली मफलर लपेट कर, मेरी आया के साथ चचेरे भाई के यहाँ भेजा था। तब ऐसा आसमान था, ऐसा बादल और ऐसी रोशनी थी। बस एक पल के लिये ही इन सब को देख पाया था क्योंकी हम लोगों के घर पास ही थे और न ही आसमान की ओर , न बादल की ओर और न ही रोशनी की ओर ही मेरा ध्यान जा पाया। लेकिन अब मुझे सब याद आ गया है। अब मुझे वह दिन भी याद आ रहा है, जिस दिन के बारे में मैंने अब तक कभी न सोचा था, किंतु इस पल मुझे अहसास हो रहा है कि वह मेरी ज़िन्दगी का सबसे महत्वपूर्ण दिन था। मुझे याद है कैसे मेरा कोट उतारा गया, कैसे मुझे अत्याधिक गर्म घर में ले गये और कैसे इससे पहले कि बच्चे खेलना शुरू करते मैं और मेरा चचेरा भाई निरीह और उलझन में खड़े थे। मुझे याद है कि क्रिसमस से पहले की अल्पकालीन दोपहर कैसे उबाऊ हो गयी, कैसे बत्तियाँ जल रही थी और कैसे हम साँझ के समय नीचे फारसी कालीनों पर इधर उधर फिसल रहे थे। मुझे याद है कि हमने उस दिन नारंगी खाई थी और तब मुझे अहसास हुआ था कि छिलके का रस कितना उत्तेजक और तीखा होता है, याद है कि चाँदी के कागज़ से कैसे चाकलेट खोलते चले गये थे, और तब पहली बार मैंने चाँदी के कागज के चमचमाने में , उसकी ध्वनि में असली प्रसन्नता पाई थी, याद है मुझे जब डब्बों से संगीत उत्पन्न किया था, और तब पहली बार मैंने एक गाने का आनंद लिया था। और तब मैंने ध्वनि , खुशबू , रंग की खोज की थी, जो की शानदार थी, आकर्षित करने वाली , दिल को धड़का देने वाली थी, पूरी ज़िन्दगी थी। मुझे इस बात का भी स्मर्ण है कि कैसे हम मदहोश और बेचैन हो , लाल कान लिये देर शाम तक खेलते रहे थे। हमारे बाल बिखर गये थे, खुशी से मदहोश हो गये थे , ठंड लग गई थी, मेरे आँसू बह निकले थे जब मुझे घर ले गये थे , सड़क पर अंधेरा हो चुका था, बर्फ़ के टुकड़े मेरे गर्म आँसूओं से पिघल गये थे। ये सब अब भूली बिसरी यादों के रूप में प्रकट होती हैं, मुझसे छुपन- छुपाई खेलत्ती हुई, आकर्षित करती हुई, छकाती हुई, मेरे सामने भविष्य को दर्शाती हुई जो बहुत पहले ही भूत में बदल चुका था। मनोदशा जीवन का एक ऐसा बार बार वापिस आने वाला तत्व है जिसके साथ एक अनिर्मित याद बंधी रहती है। ज़ाहिर है कि ये उसे संवार कर अलौकिक रूप प्रदान करती है, जैसे हमारी परेशानियाँ को भी ऐसी ही धुंधली, अनिर्मित यादें मुश्किल और असहनीय बना देती हैं।
इस प्रकार से , अभी तक दीवार के पास खड़े अपनी आत्मा में झाँकते हुए मैं विचार कर रहा हूँ। इस बात पर आश्चर्य करता हूँ कि कितना यादों का बोझ हम अपने साथ ढोते रहते हैं, कितना सब कुछ जिसके बारे में हम कुछ जानते भी नहीं है, कितना सब कुछ जो हमारे अंदर सुन्न सा पड़ा रहता है, और एक बार कभी शायद जीवित हो उठता है, या फिर शायद फिर कभी और जीवित न हो पाए। सोचते हुए चल पड़ता हूँ। आकाश की ओर देखता हूँ, नारंगी बादल ढूंढता हूँ, लेकिन तब देखता हूँ कि इस बीच वह भी राख़ में तब्दील हो गया था, गायब हो चुका था, कहीं भी नहीं था।

Friday, February 5, 2010

दो शब्द

इस ब्लोग में मैं हंगरी की कथाँए पढ कर उनका हिंदी में अनुवाद करूंगा.